दादा साहब फाल्के ने भारत में सिनेमा की शुरुआत की और उसके बाद,बहुत ही कम समय में विभिन्न भारतीय भाषाओं में फ़िल्में बनने लगीं। 1950 का दशक आते-आते,दे सीका और फ़ेलिनी जैसे फ़िल्मकारों से,पूरा भारतीय सिनेमा प्रभावित होने लगा था और कथानक तथा सामान्य जीवन के पर्दे पर प्रदर्शन के लिए,नवयथार्थवाद को सबसे सटीक प्रवृत्ति या तरीका मान लिया गया था। भारत गांवों और किसानों के देश के रूप में जाना जाता था,इसलिए बिमल रॉय जैसे निर्देशकों ने ग्रामीण जीवन और किसानों की समस्याओं पर आधारित फ़िल्मों का प्रदर्शन बख़ूबी किया। इसी समय बंगाल में,सत्यजीत रे ने कलकत्ता जैसे शहर को आधार बनाकर शहरी जीवन का अद्भुत प्रदर्शन शुरू किया था। भारतीय सिनेमा सार्थकता को प्रधानता दे रही थी और साहित्य का सिनेमा के रूप में ढलने का प्रचलन भी शुरू हो चुका था। साहित्य,हिन्दी फ़िल्मों से सबसे पहले ग़ायब हुआ और सबसे अधिक देर तक,बांग्ला और मराठी फ़िल्मों में टिका। इसी परंपरा का पालन करती,डॉ० विवेक बेले द्वारा रचित मराठी नाटक, “काटकोण त्रिकोण” का फ़िल्मी रूपांतरण है,सतीश रजवाड़े द्वारा निर्देशित फ़िल्म,”आपला मानूस”।
इस फ़िल्म में नाना पाटेकर ने दो किरदार निभाए हैं,एक वृद्ध आबा गोखले का और दूसरा इंस्पेक्टर मारूति नागरगोज़े का| नाना पाटेकर (आबा गोखले) अपने पुत्र सुमीत राघवन (राहुल गोखले) और पुत्रवधु इरावती हर्षे (भक्ति गोखले) के साथ रहते हैं। नाना पाटेकर (आबा गोखले) एक विधुर होते हैं और लगातार ये बताते रहते हैं अपने पुत्र और पुत्रवधु को कि उनकी पीढ़ी ठीक से नहीं जी रही। इसकी वजह से पुत्रवधु इरावती हर्षे (भक्ति गोखले) से उनकी कई बार बहस भी होती है। पुत्र सुमीत राघवन (राहुल गोखले),इन झगड़ों में हमेशा तटस्थ बना रहता है। एक बार दुर्घटनावश नाना पाटेकर (आबा गोखले) अपनी बालकनी से गिर जाते हैं और इंस्पेक्टर मारूति नागरगोज़े इस दुर्घटना की जांच करते हुए कभी पुत्र तो कभी पुत्रवधु को दोषी साबित करते हैं। अपने बचाव में पुत्रवधु इरावती हर्षे(भक्ति गोखले),जो कि कॉलेज में गणित पढ़ाती है,समकोण त्रिभुज और पाईथागोरस प्रमेय के हिसाब से मानवीय संबंधों को समझाती हैं। अंततः यह फ़िल्म जिसमें कई रहस्य और भावनात्मक रंग हैं एक सुखांत फ़िल्म के रूप में समाप्त होती है। कई पात्रों को सम्मिलित करना या उनका अचानक से हट जाना,बहुत से इत्तेफ़ाक का होना, टॉमस हार्डी के उपन्यासों की भी याद दिलाता है। फ़िल्म का मुख्य संदेश संयुक्त परिवारों के टूटने के कारणों को दर्शाना, माता-पिता के महत्व को बताना और छद्म स्त्रीवाद पर प्रहार करना है। हर बार पितृसत्तात्मक समाज का रोना रोने वाले समीक्षकों और दर्शकों को कई प्रश्न दिखेंगे जो उनके रटे-रटाए स्त्रीवाद के अवधारणाओं और दिखावों पर सीधा प्रहार करते हैं। फ़िल्म का संवाद अद्भुत है और जब नाना पाटेकर (आबा गोखले),अपने पुत्र से बहस कर रहे होते हैं और उनका पुत्र अपनी पत्नी के पक्ष को लेकर उनके पिता होने के उत्तरदायित्वों के न निभाए जाने की बात कहता है तब वे कहते हैं कि इस बात का उत्तर देने के लिए,या तो उन्हें और बहुत बुद्धिमान होना पड़ेगा या अपने पुत्र से प्रेम,कम करना पड़ेगा।
यह फ़िल्म उन सभी अभिभावकों के लिए भी संदेश देती है, जिनके बच्चे उनसे दूर हैं और वे इससे दुखी भी हैं,लेकिन मोह में पड़ के,उनकी सफलताओं और व्यस्तताओं की बात कर के,स्वयं को सांत्वना देते हैं। संगीत,समीर फातेर्पेकर का है और सिनेमैटोग्राफ़ी सुहास गुजराती का। फ़िल्म का संपादन राहुल भटनाकर ने किया है। फ़िल्म के निर्माण में अजय देवगन और नाना पाटेकर ने भी सहयोग दिया है।
सभी पुरुष सही नहीं हैं और अपने दंभ में आकर वे बहुत बार स्त्रियों का अपमान करते हैं,जो कि निंदनीय है,लेकिन सभी स्त्रियां भी प्रताड़ित नहीं हैं और सब के साथ अत्याचार ही नहीं हो रहा,यह भी एक सच है| नाना पाटेकर ने इसी फ़िल्म के एक संवाद में,मज़ाक में कहा है कि स्त्री अपने अभिभावकों से दूर हो जाती है और इसकी पीड़ा में वह अपने पति के साथ भी यही करना चाहती है। यह संवाद, तुलसीदास के एक दोहे की याद दिलाता है,जिसमें उन्होंने कहा है कि-
“नवनारी रोवत नहीं,कहत पुकारि पुकारि
जो प्रिय तुम हम संग करहि,हमहूं करब तुम्हारी”
मैं इस बात का समर्थन नहीं करता लेकिन आस-पास कई टूटे परिवारों,अकेले तड़पते अभिभावकों और वृद्धाश्रमों को देखकर,पूर्णतः झुठला भी नहीं पाता। यह फ़िल्म सबको देखनी चाहिए,कुछ कमियों के रहते भी, एक शानदार फ़िल्म है,”आपला मानूस”।